पौराणिक कथाएँ >> श्री गणेश श्री गणेशअनिल कुमार
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देवों में सर्वप्रथम पूज्य के जीवन की नटखट लीलाएं....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भगवान श्रीगणेश के आठ प्रमुख स्वरूप
मुद्गल पुराण (20/5/12) में ऐसा पढ़ने को मिलता है कि गणेश जी के मुख्य आठ
स्वरूप (अवतार) थे-
1. वक्रतुण्ड
अपने प्रथम स्वरूप में गणेश
जी वक्रतुण्ड
कहलाते हैं। इनकी सवारी शेर है। इस स्वरूप में ही इन्होंने मत्सरासुर नामक
दैत्य को समर्पण हेतु बाध्य किया।
2. एकदन्त
अपनी द्वितीय स्वरूप में गणेश जी
एकदन्त
कहलाते थे। इनका वाहन मूषक (चूहा) है। मदासुर नामक दैत्य को इसी स्वरूप
में इन्होंने समर्पण हेतु बाध्य किया।
3. महोदर
तीसरे महोदर नाम रूपी इस स्वरूप
में मूषक ही
गणेश जी का वाहन रहा और उन्होंने मोहासुर नामक दैत्य को समर्पण हेतु बाध्य
किया। तत्पश्चात दैत्य मोहासुर गणेश जी का अनन्य उपासक बन गया। इसी महोदर
स्वरूप में अपने दो अन्य दैत्यों-दुर्बुद्धि तथा उसके पुत्र ज्ञानारि का
भी अंत किया।
4. गजानन
अपने इस चौथे स्वरूप में भी गणेश
जी का वाहन
चूहा ही रहा तथा उन्होंने कुबेर पुत्र दैत्य लोभासुर को समर्पण हेतु बाध्य
किया।
5. लंबोदर
चूहा इस स्वरूप में भी आपका वाहन
बना। लंबोदर
रूपी स्वरूप में आपने दैत्य क्रोधासुर को समर्पण हेतु बाध्य किया। इसी
स्वरूप में आपने मायाकार नामक दैत्य के अत्याचारों का भी अंत किया।
6. विकट
इस स्वरूप में मोर को सौभाग्य
प्राप्त हुआ गणेश
जी का वाहन बनने का। दैत्य कामासुर को आपने इसी विकट स्वरूप में समर्पण
हेतु बाध्य किया।
7. विघ्नराज
इस स्वरूप में गणेश जी सवार
हुए शेषनाग पर
और दैत्य ममासुर को समर्पण हेतु बाध्य किया। ममासुर को ममतासुर भी कहा
जाता था।
8. धूम्रवर्ण
सवारी के रूप में चूहा पुन:
गणेश जी का
वाहन बना और इस स्वरूप में आपने अहंतासुर (अहंकासुर या अभिमानासुर) नामक
दैत्य को समर्पण हेतु बाध्य किया।
स्थानाभाव के कारण श्री गणेश के आठों स्वरूपों का अत्यन्त ही संक्षिप्त
वर्णन दिया गया है, लेकिन इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा गया है कि दी
जाने वाली जानकारी शास्त्र-सम्मत, प्रामाणिक एवं रोचक हो। चूंकि पुस्तक को
विशेष रूप से बच्चों और किशोर पाठकों के लिए तैयार किया गया है, इसलिए
श्री गणेश से जुड़ी उन्हीं लीलाओं को लिया गया है, जिसमें उनका नटखटपन और
अन्याय के विरुद्ध लड़ने का साहस प्रकट होता है। ये दोनों गुण जीवन को
सफलता और संपूर्णता प्रदान करते हैं।
गणेश जी का प्रादुर्भाव (जन्म)
यूं तो पद्मपुराण, लिंगपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण व शिव पुराण इत्यादि
प्राचीन ग्रन्थों में गणेश जन्म की अलग-अलग कथाएं दी गई हैं। लेकिन जो कथा
जनसामान्य में सर्वाधिक प्रचलित है, वह शिव पुराण में रुद्र संहिता के
अंतर्गत 13 से 18 वें अध्यायों में उल्लिखित है।
एक बार पार्वती जी की सखियां, जया एवं विजया ने उनसे कहा कि आपका भी अपना एक गण होना चाहिए क्योंकि नंदी, भृंगी इत्यादि शिवजी के गण हैं और प्राय: वे उन्हीं के निर्देशों व आदेशों का पालन करते हैं।
एक दिन जब पार्वती जी स्नान के लिए गईं तो कन्दरा के द्वार की रक्षा के लिए उन्होंने नंदी को तैनात कर दिया। अभी वे स्नान करने की तैयरी कर रही थीं कि अचानक शिवजी वहां आए और नंदी की परवाह किए बिना सीधे भीतर चले गए।
अपनी निजता में यह हस्तक्षेप पार्वती जी को कतई रास न आया और तभी उन्होंने तय कर लिया कि वे अपने एक गण की रचना करेंगी। उसी समय उन्होंने चंदन के लेप से एक मानवाकृति तैयार की और उसमें प्राण फूंक दिए। फिर उस बच्चे को आशीर्वाद देते हुए पार्वती जी बोलीं, ‘‘आज से तुम मेरे पुत्र हो। इस महल के मुख्य द्वार की सुरक्षा का भार मैं तुम पर छोड़ती हूँ। किसी को भी बिना मेरी आज्ञा के भीतर न आने देना, चाहे कोई भी क्यों न हो।’’
ऐसा कहने के बाद उन्होंने उस बच्चे को एक दंड (डंडा) दिया और स्नान करने के लिए चली गईं।
कुछ देर बाद शिवजी फिर वहां आए और भीतर जाने लगे। बालक गणेश नहीं जानता था कि यही उसके पिता हैं। गणेश ने हाथ में पकड़ा दंड दरवाजे के बीच अड़ा दिया और बोला, ‘‘मेरी मां भीतर स्नान कर रही हैं, अत: मैं आपको अन्दर जाने की अनुमति नहीं दे सकता।’’
गणेश के मुख से ऐसा सुनकर शिवजी के क्रोध का पारावार न रहा। वे बोले, ‘‘मूढ़मति ! क्या तू जानता नहीं कि मैं कौन हूं ? मैं शिव हूं....पार्वती का पति। यह तुम्हारी धृष्टता है जो तुम मुझे मेरे महल में प्रवेश नहीं करने दे रहे हो।’’
इसी बीच बात बढ़ती देख शिवजी के गणों ने हस्तक्षेप किया और बोले, ‘‘हम भगवान शिव के गण हैं और यह सोचकर कि तुम भी हम में से एक हो, हमने तुम्हें कुछ नहीं कहा अन्यथा अब तक तुम जीवित न रहते। हमारी बात मान लो, शिवजी को भीतर जाने दो। क्यों बेकार अपने प्राणों के शत्रु बने हो ?’’
लेकिन गणेश तनिक भी विचलित न हुए। उन्होंने किसी को भी भीतर न जाने दिया। शिवजी के गणों तथा गणेश जी के बीच तीखा वाक्युद्ध चल ही रहा था कि गण यह जानकर घबरा उठे कि गणेश पार्वती जी के पुत्र हैं, जो अपनी मां के आदेश के पालन हेतु द्वार पर पहरा दे रहे हैं। वे शिवजी के पास गए और सब कुछ बता दिया। लेकिन संभवत: शिवजी अपने गणों का अहंकार चूर करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सभी देवताओं का आह्वान किया और उन्हें व अपने गणों को गणेश जी पर आक्रमण करने का आदेश दिया।
देवताओं, शिवजी के गणों तथा गणेश जी के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ गया। गणेश जी का पराक्रम देखते ही बनता था। उन्होंने नुकीले तीरों की ऐसी बौछार की तथा अन्य शस्त्रों का ऐसा प्रयोग किया कि कुछ ही देर में शिवजी की सेना तितर-बितर हो गई।
एक बार पार्वती जी की सखियां, जया एवं विजया ने उनसे कहा कि आपका भी अपना एक गण होना चाहिए क्योंकि नंदी, भृंगी इत्यादि शिवजी के गण हैं और प्राय: वे उन्हीं के निर्देशों व आदेशों का पालन करते हैं।
एक दिन जब पार्वती जी स्नान के लिए गईं तो कन्दरा के द्वार की रक्षा के लिए उन्होंने नंदी को तैनात कर दिया। अभी वे स्नान करने की तैयरी कर रही थीं कि अचानक शिवजी वहां आए और नंदी की परवाह किए बिना सीधे भीतर चले गए।
अपनी निजता में यह हस्तक्षेप पार्वती जी को कतई रास न आया और तभी उन्होंने तय कर लिया कि वे अपने एक गण की रचना करेंगी। उसी समय उन्होंने चंदन के लेप से एक मानवाकृति तैयार की और उसमें प्राण फूंक दिए। फिर उस बच्चे को आशीर्वाद देते हुए पार्वती जी बोलीं, ‘‘आज से तुम मेरे पुत्र हो। इस महल के मुख्य द्वार की सुरक्षा का भार मैं तुम पर छोड़ती हूँ। किसी को भी बिना मेरी आज्ञा के भीतर न आने देना, चाहे कोई भी क्यों न हो।’’
ऐसा कहने के बाद उन्होंने उस बच्चे को एक दंड (डंडा) दिया और स्नान करने के लिए चली गईं।
कुछ देर बाद शिवजी फिर वहां आए और भीतर जाने लगे। बालक गणेश नहीं जानता था कि यही उसके पिता हैं। गणेश ने हाथ में पकड़ा दंड दरवाजे के बीच अड़ा दिया और बोला, ‘‘मेरी मां भीतर स्नान कर रही हैं, अत: मैं आपको अन्दर जाने की अनुमति नहीं दे सकता।’’
गणेश के मुख से ऐसा सुनकर शिवजी के क्रोध का पारावार न रहा। वे बोले, ‘‘मूढ़मति ! क्या तू जानता नहीं कि मैं कौन हूं ? मैं शिव हूं....पार्वती का पति। यह तुम्हारी धृष्टता है जो तुम मुझे मेरे महल में प्रवेश नहीं करने दे रहे हो।’’
इसी बीच बात बढ़ती देख शिवजी के गणों ने हस्तक्षेप किया और बोले, ‘‘हम भगवान शिव के गण हैं और यह सोचकर कि तुम भी हम में से एक हो, हमने तुम्हें कुछ नहीं कहा अन्यथा अब तक तुम जीवित न रहते। हमारी बात मान लो, शिवजी को भीतर जाने दो। क्यों बेकार अपने प्राणों के शत्रु बने हो ?’’
लेकिन गणेश तनिक भी विचलित न हुए। उन्होंने किसी को भी भीतर न जाने दिया। शिवजी के गणों तथा गणेश जी के बीच तीखा वाक्युद्ध चल ही रहा था कि गण यह जानकर घबरा उठे कि गणेश पार्वती जी के पुत्र हैं, जो अपनी मां के आदेश के पालन हेतु द्वार पर पहरा दे रहे हैं। वे शिवजी के पास गए और सब कुछ बता दिया। लेकिन संभवत: शिवजी अपने गणों का अहंकार चूर करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सभी देवताओं का आह्वान किया और उन्हें व अपने गणों को गणेश जी पर आक्रमण करने का आदेश दिया।
देवताओं, शिवजी के गणों तथा गणेश जी के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ गया। गणेश जी का पराक्रम देखते ही बनता था। उन्होंने नुकीले तीरों की ऐसी बौछार की तथा अन्य शस्त्रों का ऐसा प्रयोग किया कि कुछ ही देर में शिवजी की सेना तितर-बितर हो गई।
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